Jawahar Lal Nehru: हम स्वतंत्र है किसी व्यक्ति के कार्यो का विश्लेषण करने के लिए , उनकी नीतियों के बारे में ईमानदार बहस करने के लिए और एक निष्पक्ष आंकलन के लिए और हमारा यही प्रयास भी होना चाहिए की हम व्यक्तिगत मीनमेख निकालने की बजाय किसी भी शक्ख्सियत की नीतिगत रूप व्याख्या करे।
Jawahar Lal Nehru –
पंडित जवाहर लाल नेहरू आजादी के महानायकों में से एक थे, वे समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, और लोकतान्त्रिक गणतन्त्र के वास्तुकार मानें जाते हैं। नेहरू जी के व्यक्तित्व का ही कमाल था की टैगोर ने उन्हें भारतीय राजनीति का ऋतुराज कहा था और ऑल्डस हक्सले ने चट्टानी राजीनीति की छाती पर उग आने वाला गुलाबी पौधा कहा था। हम सब लोगो के मन में भी नेहरू जी का नाम सुनते ही एक मनोहर सी छबि उभरती है और उनके समर्थको ने भी इसी छबि बेहद जतन से को आगे बढ़ाया है।
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वे एक स्वप्नद्रष्टा थे और उन्होंने देशके लिए कई सपने देखे और इस दिग्भ्रमित समाज को उन सपनो पर विश्वास दिलाने में भी सफल रहे थे । यह अलग बात है कि उनमे से ज्यादातर सपने कागज़ तक या नारो तक ही ही सिमित रहे।
देश की अखंडता और स्वस्थ लोकतंत्र
नेहरू जी सबसे बड़ी उपलब्धि भारत की अखंडता को अक्षुण रखना था , उन्होंने न सिर्फ देश को एक सूत्र में पिरोने में अपनी भूमिका निभाई वरन आपसी भाईचारे की भावना को भी बढ़ावा दिया। फिर उन्होंने देश में लोकतंत्रीय भावनाओ को मजबूत किया। मेरी नज़र में पंडित जी का दूसरा बड़ा काम भारत में लोकतंत्र को खड़ा करना था जिसकी जड़ें अब काफ़ी मज़बूत हो चुकी हैं और जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती है और इसीलिए भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है।
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आजादी मिलने के बाद कई ऐसे देश हैं, जो अपनी आजादी को बचा पाने में नाकामयाब होकर या तो तानाशाही के शिकार हो गये या फिर वहां लोकतंत्र जैसी चीज रही ही नहीं। लेकिन वहीं भारत में आजाद होने के सात दशक बाद भी एक मजबूत लोकतंत्र बना हुआ है।
नवनिर्माण
पंडित जी को ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ कहा जाता है क्योकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद आर्थिक रुप से ख़स्ताहाल और विभाजित हुए भारत का नवनिर्माण करना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन पंडित जी ने अपनी दूरदृष्टि और समझ से कई योजनाएँ बनाईं उसके नतीजे वर्षों बाद मिले। जैसे भाखड़ा नांगल बाँध, रिहंद बाँध, भिलाई, बोकारो इस्पात कारख़ाना आदि की आधारशिला नेहरूजी के ज़माने में ही रखी गई थी।
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बच्चों के अंदर वैज्ञानिक अभिरूचि बढ़नी चाहिए, इसपर जवाहर लाल नेहरू का विशेष आग्रह था और वे वैज्ञानिक अवधारणा के पक्षधर थे । पंडित जवाहर लाल नेहरू इस हकीकत को समझते थे कि अगर भारत को दुनिया के विकसित देशों की कतार में खड़ा होना हैं, तो विज्ञान और प्रौद्योगिकी यानी साइंस और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में एक मुकाम हासिल करना होगा । इसके लिए इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी जैसी कई ऐसी संस्थाओं की स्थापना हुई |
लेखक एवं विचारक
महान लेखक पंडित नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ और प्रभावशाली वक्ता ही नहीं, महान लेखक भी थे। उनकी आत्मकथा 1936 ई. में प्रकाशित हुई और संसार के सभी देशों में उसका आदर हुआ। उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता प्रचलित है लेकिन उनकी लोकप्रिय किताबों में Discovery of India रही, जिसकी रचना 1944 में अप्रैल-सितंबर के बीच अहमदनगर की जेल में हुई। भारत की खोज पुस्तक को क्लासिक का दर्जा हासिल है। इस पुस्तक में नेहरू जी ने सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर भारत की आज़ादी तक विकसित हुई भारत की संस्कृति, धर्म और जटिल अतीत को वैज्ञानिक दष्टि से विलक्षण भाषा शैली में बयान किया है। पंडित जवाहर लाल नेहरू की Biography: जिन्होंने कहा था आराम हराम है…!
हाज़िरजवाबी
बहुत व्यस्त होने के बावजूद वह अपने दोस्तों की चुटकियां लेने से पीछे नहीं हटते थे. एक बार नाश्ते की मेज़ पर नेहरू छूरी से सेब छील रहे थे, इस पर उनके साथ बैठे रफ़ी अहमद किदवई ने कहा कि आप तो छिलके के साथ सारे विटामिन फेंके दे रहे हैं। नेहरू सेब छीलते रहे और सेब खा चुकने के बाद उन्होंने सारे छिलके रफ़ी साहब की तरफ बढ़ा दिए और कहा, “आपके विटामिन हाज़िर हैं. नोश फ़रमाएं।”
संसदीय मर्यादा का पालन
एक किस्सा जो तारकेश्वरी सिन्हा ने खुद सुनाया था , 1962 के युद्ध के बाद उन्हें यह दायित्व सौंपा गया कि वे सरकार का पक्ष सदन के सामने रखे , जोश जोश में उन्होंने चीन के लिए कुछ अपमानजनक शब्द भी बोल दिये। नेहरू जी को यह नागवार गुजरा उन्होंने तुरंत उन्हें रोक कर इस तरह कि भाषा के लिए सदन से माफ़ी मांगी।
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नेहरू जी न सिर्फ संसदीय कार्यवाही में भाग लेते थे बल्कि विपक्षी सदस्यों को भी ससम्मान सुनते भी थे, जो आज के इस युग में जब शोर शराबा ही विरोध का सूचक है , इस तरह के व्यव्हार को एक अनहोनी ही माना जायेगा ।
विदेश नीति
नेहरू जी कि विदेश नीति उनके कोरे आदर्शवाद से पूरी तरह प्रभावित थी। उन्होंने मार्शल टीटो, कर्नल नासिर और सुकार्णो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी और यह विदेश नीति कागज़ पर बहुत प्रभावी नज़र आती है और आज भी कई लोग इसका गुणगान करते नज़र आते है । मगर हकीकत यह है कि तत्कालीन विश्व का bipolar होने से इस नीति का देश हित से कोई तालमेल नहीं बैठ पाया क्योकि सारे प्रभावी देश एक या दूसरे खेमे के सदस्य थे । यही कारण था कि 1962 के युद्ध में कोई भी देश भारत के साथ नहीं खड़ा था। गुटनिरपेक्षता का एक और दुष्परिणाम यह था कि भारत किसी भी बड़े निवेश को पाने में भी असफल रहा। जहाँ जापान और अन्य देश , विदेशी निवेश कि बदौलत एक औद्योगिकीकरण करने में सफल रहे , भारत विकासशील देशो कि कतार में ही खड़ा रह गया । विदेशी निवेश पाकर कई अन्य देश बहुत आगे निकल गये, मगर भारत अपने ही शीशमहल में कैद रहा ।
आर्थिक नीति
नेहरू के आदर्शवाद का दूसरा शिकार भारत कि आर्थिक नीतियां रही जिसकी कसक भारतीय मानस में आज भी दिख जाती है। नेहरू जी ने विकास का एक समाजवादी ढांचा अपनाया। गाँवों के विकास कि बात तो करी लेकिन शहरीकरण और बड़े बड़े उद्योगों को अपने विकास के मॉडल में प्रमुखता दी। इससे कृषि आधारित ग्रामीण रोजगार व्यवस्था चरमरा गई , शहर और ग्रामीण क्षेत्र में आर्थिक असमानताए बड़ी और ग्रामीण क्षेत्र मुलभुत सुविधाओं को भी तरस गए।
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फिर समाजवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत हर औद्योयिक और व्यावसायिक क्षेत्र सरकार के नियंत्रण में चले गए , यहाँ तक कि किसान और छोटे-छोटे व्यापारी भी सरकारी नियंत्रण से अछूते न रहे । सरकारी प्रतिष्ठान सफ़ेद हाथी बन गए और सरकारी अधिकारी और नेता नये जंमीदार। अब ये लोग तय करते थे कि कौन सा उद्योग क्या बनाएगा और कितना !! एक छोटा सा उद्योग लगाने के लिए भी सौ से ज्यादा परमिशन लेना पड़ती थी। इससे न सिर्फ अक्षमता बड़ी वरन भ्रष्टाचार भी देश के कोने कोने के फ़ैल गया।
प्रथम पंचवर्षीय योजना भी अपने घोषित उद्देश्यों को पाने में असफल रही थी , मगर फिर द्वितीय योजना में टारगेट और भी बढ़ा -चढ़ा कर रखे गये और पंचवर्षीय योजना का एक निष्पक्ष आंकलन करने कि बजाय नेहरू जी इसे लोकलुभावन रूप प्रदान कर दिया । न तो नेहरू जी के पास इतना समय था और न ही उनकी टीम चाहती थी कि किसी तरह का आंकलन किया जाए , पालिसी और उसके क्रियान्वन में अंतर का रिवाज तभी से चला आ रहा है ।
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ऐसा नहीं था कि नेहरू जी अपने इकोनॉमी मॉडल कि विफलता से अनजान थे , मगर आत्मुग्धता कहे या wishful thinking , उन्होंने इन्ही नीतियों को जारी रखना उचित समझा।
सामरिक नीति
यह नेहरू जी कि दुखती रग थी , एक तरफ उनकी शांति दूत कि छबि और दूसरी तरफ देश कि रक्षा सम्बन्धी आवश्यकताए और परिणामस्वरूप वे दोनों में वे तालमेल बिठाने में पूरी तरह असफल रहे । उनकी यह कमजोरी तो 1948 के दौरान ही सामने आ गई थी मगर फिर भी उन्होंने कोई सबक न सीखकर, रक्षा सम्बन्धी जरूरतों को नज़रअंदाज़ ही किया। नतीजा 1962 में फिर देखने को मिला।
कश्मीर समस्या को लेकर नेहरू जी के ढुलमुल और confused रवैय्ये को लेकर एक ब्रिटिश पत्रकार ने तो उनकी तुलना ” hamlet ” से कर डाली थी।
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1962 कि हार तो नेहरू जी कि अपने सपनो कि दुनिया में खोये रहने का एक नायब उदाहरण है , जब उन्होंने सारी चेतावनियों को नज़रअंदाज़ कर दिया। एक अक्षम व्यक्ति को रक्षामंत्री बनाना और उस पर आँख मूंद कर विश्वास करना भी , देश के लिए नुकसानदेह साबित हुआ ।
इस हार से क्षुब्द होकर देश कि पुकार यही थी कि,
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर.
1962 के बाद भारत ने नेहरूवादी रास्ते से हटकर एक सक्षम राष्ट्र बनने की दिशा में कदम बढ़ाया और पाकिस्तान के साथ 1965 और 1971 के युद्धों में भारत की जीत इसी नई सोच का नतीजा थी ।
कमजोर प्रशासक
नेहरू जी के समय कांग्रेस पार्टी ने कई मामलो में प्रशासन में दखल दिया था , 1959 में केरल कम्यूनिट्स सरकार कि कांग्रेस अध्यक्ष (इंदिरा जी) के कहने पर बर्खास्ती एक ज्वलंत उदाहरण है । फिर अपने दोस्तों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठा देना या अक्षम लोगो को बढ़ावा देना भी यही दर्शाता है।
भ्रष्टाचार
एक और जहाँ नेहरू व्यक्तिगत जीवन में सादगी और ईमानदारी का सन्देश देते रहे , वही उन्होंने सरकारी कार्यो में हो रहे भ्रष्टाचार के मामलो में बिलकुल ही विपरीत रुख अपना रखा था । कृष्णा मेनन जिन पर जीप घोटाले में शामिल होने का आरोप लगा था उन्हें हाई कमिश्नर के पद से तरक्की दे मंत्री और बाद में रक्षा मंत्री बना दिया गया। फिर मुंद्रा घोटाला हुआ और बड़ी मुश्किल से सरकार उसकी जांच करवाने को राजी हुई। कई कांग्रेसी भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गये थे मगर सरकार और पार्टी आँख मूंदे बैठी रही। सं 1950 में ही यह पाया गया था कि कई मंत्री भ्रष्ट आचरण में लिप्त है , फिर यही बात 1962 में भी गठित आयोग ने भी कही , मगर रिजल्ट वही ढाक के तीन पात।
पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र
स्वीकृत मान्यताओं के विपरीत नेहरू जी ने सिर्फ अपने निकट लोगो को ही आगे बढ़ाया , इंदिराजी को कई अनुभवी लोगो को दरकिनार कर पहले पार्टी में फिर सरकार में आगे बढ़ाया । कामराज प्लान और कुछ नहीं इसी उद्देश्य का एक रेशमी आवरण था।
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एक तरफ जवाहर लाल नेहरू एक बेहद प्रभावी व्यक्तित्व के धनी , स्वप्नद्रष्टा , a dreamer और एक गंभीर चिंतक, एक अच्छे नेता और सफल राजनैतिज्ञ के रूप में नज़र आते है, मगर दूसरी तरफ एक राजनेता के रूप में उनके व्यक्तित्व में कई कमियां नज़र आती है , खासकर उनकी सामरिक , विदेश नीति और आर्थिक नीतियों में थोथा आदर्शवाद साफ़ झलकता है। आज आवश्यकता इस बात कि हम अपने महापुरुषों का निष्पक्ष आंकलन करे , उन्हें किंवदंतियों से निकालकर यथार्थ पर उतारे और उनकी अच्छाइयों -गलतियों से शिक्षा ले!
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