वैसे तो पश्चमी बंगाल में तमाम राजनैतिक पार्टियां चुनाव मैदान में अपनी किसमत आज़मा रहीं हैं. लेकिन चुनावी रेस में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के इलावा कोई भी हमने चुनाव मैदान में दिखाई नहीं दे रहा. ऐसे में कांग्रेस पार्टी के लिए एक और हार उसके नेर्तत्व पर फिर से सवाल खड़े करने के लिए काफी होगी.
सबसे बड़ा सवाल यह पैदा होता है की आप हार को किस तरह से गले लगाना चाहते हैं. लड़ते हुए वीरता के साथ या फिर दुबक कर कायरता के साथ पिछले काफी समय से देखा जा रहा है की जिस राज्य में कांग्रेस को अपनी हार दिख रही होती है. उस राज्य में कांग्रेस दम-खम लगाना ही बंद कर देती हैं.
दूसरी तरफ जिस राज्य में कांग्रेस किसी क्षेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन करती हैं, उस राज्य में सारा भार क्षेत्रीय पार्टी पर डालते हुए वहां पर भी ज्यादा दम-खम नहीं लगाती जैसा की हमने बंगाल और उत्तर प्रदेश में देखा था. अब देखा जाये तो पश्चमी बंगाल में भले ही कांग्रेस की हार तय हैं लेकिन बंगाल में कांग्रेस पार्टी के आईएसफ के साथ हुए गठबंधन के चलते पार्टी को अन्य 10 सालों के लिए राज्य से बाहर रखने का काम कर दिया हैं.
इस गठबंधन में अहम् भूमिका भले ही अधीर रंजन चौधरी ने निभाई हो और कांग्रेस के नेताओं ने इसे आत्मघाती बताया हो. सवाल यह है की क्या अधीर रंजन चौधरी बिना कांग्रेस के नेर्तत्व के अकेले गठबंधन का फैसला कर सकते थे? जवाब है नहीं, लेकिन हां यह फैसला इस बात के लिए बेहद जरूरी है की अधीर रंजन चौधरी द्वारा किये गए गठबंधन के चलते चुनाव हारा गया.
जिससे यह बिलकुल साफ़ है की कांग्रेस का नेर्तत्व अपनी कुर्सी बचाने के लिए इस बार अधीर रंजन चौधरी की राजनितिक नैया डुबाने की फिराख में हैं. शायद यही कारण है की उन्हें अब लोकसभा में मुख्य विरोधी दल के नेता के रूप से भी हटा दिया जा चूका हैं. उनकी जगह अब पंजाब के लुधियाना के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू को लोकसभा में मुख्य विरोधी दल के नेता के रूप में कार्यभार दिया गया हैं.