भारतीय जनता पार्टी की राजनितिक चालें अब भारत की दूसरी राजनितिक पार्टियों से बिलकुल अलग हैं. बीजेपी अपनी पार्टी के नेताओं को सीधे किसी दूसरी पार्टी के साथ नहीं लड़वाते, बल्कि वह सामने वाली पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं के विपक्षी पार्टी के मुख्य नेताओं के साथ सम्बन्ध खराब होने का फायदा उठाते हैं.
जैसे उदाहरण के लिए आप देख सकते है की राहुल गाँधी के सबसे अच्छे दोस्त ज्योतिरादित्य सिंधिया और ममता बनर्जी के ख़ास मंत्री शुभेंदु अधिकारी को देख सकते हैं. ऐसे में पार्टी आपसी फुट में ही उलझ कर रह जाती है और राज्य में सरकार बनाने का काम सत्ताधारी पार्टी के नाक के निचे से कर लिया जाता हैं.
ममता बनर्जी ने इसका तोड़ निकालने की कोशिश तो की हैं लेकिन वह हालातों को सँभालने की बजाए पहले से ज्यादा खराब करने की कोशिश में हैं. ममता बनर्जी अब आनन-फानन में ऐसे नेताओं का साथ ले रही हैं जो अपने राजनितिक करियर में 10000 की संख्या में भी वोट हासिल नहीं कर पाए थे.
जैसे राकेश टिकैत दूसरा वह नेता जो भारतीय जनता पार्टी से बहुत पहले से निकाले जा चुके थे. उन्होंने पार्टी के खिलाफ बहुत कुछ कहा और किया भी लेकिन इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी को कोई फरक नहीं पड़ा जैसे यशवंत सिन्हा. यशवंत सिन्हा अटल जी के कार्यकाल में देश के वित्तमंत्री हुआ करते थे.
जब यह वित्तमंत्री थे तो देश की विपक्षी पार्टियां इन्हें बेवकूफ कहा करती थी, खैर 2014 में इन्हें कोई पद नहीं मिला जिस वजह से यह पार्टी से नाराज़ चलने लगे और 2018 में इन्होने इस उम्मीद में पार्टी छोड़ दी की 2019 में महागठबंधन की जीत के साथ इन्हें कोई पद मिल जाएगा. 2019 में बीजेपी की जीत के बाद अब जाकर यशवंत सिन्हा का का नाम टीवी पर देखने को मिला जब उन्होंने TMC की सदस्यता ग्रहण की.
यशवंत सिन्हा और राकेश टिकैत आज की राजनीती में कहीं पर भी खड़े नज़र नहीं आते, लेकिन मीडिया की सुर्ख़ियों का हिस्सा बनने के लिए वह कुछ न कुछ ऐसा काम या फिर बयान देते रहते हैं की वह मीडिया की सुर्ख़ियों में अपने आप को बहुत बड़ा नेता साबित कर सकें. ऐसे में क्या ऐसे नेता चुनाव जीतने या जितवाने के काम आ सकते हैं?